सन छियानबे की बात है, राजा हिंदुस्तानी के गाने पान ठेलों से ले कर घर-घर में गूँजायमान थे। कोई भी परदेसी को जाने देने को राज़ी ही नहीं था। म्युजिकल एकता का लेवल केले-पंजीरी के परसाद जैसा था जिसमें पंजीरी और केला आपस में गिलगिला-चपचपा कर द्वैत से अद्वैत हो चुके हों। पता ही न चले केला कहाँ खत्म होता है और पंजीरी कहाँ शुरू।
परदेसी – परदेसी जाना नहीं की सफलता का ये आलम था कि युनेस्को उसको मन ही मन अपना मुँहबोला बेस्ट सॉंग ऑफ दी ईयर मान चुकने के बाद व्हॉट्सैप के आविष्कार का वेट करने लगा था। उदित नारायण के आलापों को “भूल ना जाणा” की दर्दनाक चीख पुकार के बीच निगल चुकी सपना अवस्थी को पता भी न चला कि अचानक अपनी मिकी माऊसी आवाज़ के साथ युगडिसरप्टर बन कर किसी ने समाज में परिवर्तन का शंख फूँक मारा। माहौल में ताज़ा हवा लेते हुए प्रकट भये फ्रस्ट्रेटेड एकल प्रेमी संघ के सिम्पिंग प्रेसिडेंट और ब्रोकनहार्ट सर्जरी के स्पेशियलिस्ट अल्ताफ़ राजा!
जी हाँ आपके – हमारे – हम सब के अल्ताफ़ भाई जिन्होंने परदेसी नामक इस प्राणी को सीधे दो टूक शब्दों में कह दिया कि उन्हें उसके द्वारा साथ निभाये जाने की कोई खास उम्मीद नहीं है क्योंकि सुबह पहली गाड़ी से घर को लौट जानेवालों के लिये उनके मन में चार आने की इज्जत नहीं है। परदेसी कहीं ये सुन कर अनसुना न कर दे इस लिये अल्ताफ़ राजा साथ कोरस में मौजूद उनकी प्रजा ने करीबन सत्रह-अठारह बार उनकी खरी-खरी ताक़ीद को ऐसे रिपीट किया कि इसके अनसुना रह जाने की कोई उम्मीद ही न रहने पाये।
इस परदेसी-रोक वातावरण में टाईम एवम् टाईड के खिलाफ जा कर अल्ताफ़ भाई मख़मली आवाज़ में दहाड़ रहे थे, कैलेण्डर पकड़ कर क्रॉनोलॉजी समझा रहे थे कि – “जब तुमसे इत्तेफकन मेरी नज़र मिली थी अब याद आ रहा है शायद वो जनवरी थी…”। जनवरी से चल कर दिसम्बर तक पहुँच के मैजिकल रियलिज़्म का सच्चा उदाहरण देते हुये वो स्वयं को रियैलिटी चेक भी देते हैं कि “लेकिन ये क्या बताऊं, अब हाल दूसरा है, अरे वो साल दूसरा था, ये साल दूसरा है!”
इस एक कव्वाली के साथ अल्ताफ़ भाई देश की वाणी बन कर उभरे, और चहुं ओर पॉल्यूशन की तरह व्याप्त हो गये। अब ये पता लगाना नामुमकिन हो चुका था कि आखिर परदेसी से ईशू किस को है? महावीर मेडिकलवाला, गणपति पण्डाल, मेवाड़ कुल्फीवाला, दामोदर पानवाला या सोनी जी की नव विवाहिता मिसेज? क्योंकि सब के सब अल्ताफास्त्र धारण करके अपने-अपने परदेसी से इण्डिविजुअली डील कर रहे थे। बिक्री के तमाम रेकार्ड तोड़ ताड़ के तुम तो ठहरे परदेसी का कैसेट हर रोज़ नये कीर्तिमान बना रहा था। इसमें यदि कैसेट रेकार्डिंग सेंटरों से खाली कैसेटों में भरवाये जाते अल्ताफी-कारतूस की गिनती भी डाल दी जाये तो आकाशगंगा में बिके तमाम रेकॉर्ड्स की संख्या से इसके दो चार करोड़ ज़्यादा होने के चान्स हैं।
मुहल्ले के इतिहासकारों का मानना है कि यदि अल्ताफ़ भाई सन बियालिस में तुम तो ठहरे परदेसी अर्थात् T3P रिलीज़ करते तो ये भारत छोड़ो आंदोलन की आवाज़ बन कर उभरता और देश की राष्ट्रीय कव्वाली घोषित कर दिया गया होता। सोचिये कितना सुंदर वातावरण होता कि स्कूल में अंग्रेजी प्रेयर के बाद बच्चे पूरे भाव से T3P का एक स्टैंजा गा कर अपनी – अपनी क्लास की ओर प्रस्थान करते। असेम्बली में सर पर पड़ती धूप में गश खा कर बेहोश होते कमजोर टाईप के बच्चों की वजह से कोरस को शॉर्टन करने की माँगें ले कर लोग कलेक्टरेट में विज्ञप्ति दे रहे होते, जैसे वंदे मातरम् के लिए आजकल दी जाती हैं। स्कूलों में हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन लड्डू बँटने के पहले इसका पूरा वर्जन सुनना कम्पलसरी कर दिया गया होता। एक, दो और पाँच रुपये के कमेमरेटिव सिक्कों पर अल्ताफ़ भाई का डिवाईन मुस्कुराहट बिखेरता चेहरा नज़र आता। मगर ये हो न सका और मगर फिर भी ये आलम था कि डेढ़ दो साल बीत चुकने के बावजूद T3P का क़हर कम होने का नाम ही न ले रहा था।
बात सिर्फ परदेसियों तक लिमिटेड नहीं रह गई थी। चाहे “पंगा ले लिया” जैसा नौटी गीत हो या प्रेम में अधीर प्रेमी को धैर्य का महत्त्व समझाता हुआ, “थोड़ा इंतज़ार का मज़ा लीजिये” जैसा संदेशात्मक गीत, आवारा हवा का झोंका बन कर अल्ताफ़ भाई हमारे जीवन में घुसड़ चुके थे। हम साइकल पर सड़कें नापते हुये हम हाफ पैण्ट से फुल पैण्ट का सफर तय कर रहे थे उधर अल्ताफ़ भाई वनसाइडेड लव में आत्म त्याग की नयी परिभाषा रच चुके थे। अल्ताफ़ राजा के वैज्ञानिक तथ्यों से भरपूर गाने में कार्बन बेस्ड लाईफ फॉर्म लवर अपनी लवरी के आईलाईनर के लिये फ़ना हो जाने को तत्पर है, मुलाहिजा फरमाईये –
“दिल और जिगर तो कुछ भी नहीं इक बार इशारा तो कर दे,
मैं खुद को जला भी सकता हूँ तेरी आँखों के काजल के लिये।”
कोरस ने सलीक़े से “इक बार इशारा तो कर दे” को कई दफ़ा बोल कर भरपूर प्रेशर भी बनाये रखने का काम बखूबी निभाया।मल्लिकाचुंबी-छज्जाशयनी इमरान हाशमी के ‘कभी मेरे साथ कोई रात गुज़ार’ जैसे गाने सुनने-देखने वाली जनरेशन के लिये यकीन करना मुश्किल होगा कि इस धरती पर कभी अल्ताफ़ भाई जैसा मर्यादा मर्दोत्तम भी इस धरती पर कदम रख चुका था जिसके गीत में जब नायक को ओवर एक्साइटेड नायिका अपने घर पर सोने के लिये आमंत्रित करती है तो नायक चिंतित हो उठता है कि कहीं नायिका उन्हें छत पर सोने को न कह दे क्योंकि उसे नींद में चलने का रोग है। घिघियाता नायक मय कोरस निवेदन करता है – “इक रात ठहर जायें हम घर में तेरे लेकिन, छत पर न सुला देना हम नींद में चलते हैं।“
सॉम्नाम्ब्यूलिज़्म याने नींद में चलने के इस रोग के प्रति पब्लिक अवेयरनेस लाने का विजनरी काम सिर्फ अल्ताफ़ भाई के वोकल कॉर्ड्स के ही हाथों लिखा था।
इतना ही नहीं मार्वल मूवीज़ के सिक्वेल से करीब दस-पंद्रह साल पहले विजनरी अल्ताफ़ भाई ने T3P का सिक्वेल रीलिज़ कर दिया था – आज की रात ना जा परदेसी। मगर ये सब करते-कराते सन् निन्यानबे आ गया, दुनिया वाय टू के नामक समस्या से जूझने को चाक चौबंद हो चुकी थी। Y2K निपटा के संसार नये मिलेनियम में ठीक से प्रवेश भी नहीं कर पाया था कि अल्ताफ़ भाई की आवाज़ पिछले मिलेनियम के सारे नियम को तोड़ती हुई राम गोपाल वर्मा की फिल्म कम्पनी को हिट बना गयी। “तुमसे कितना प्यार है” जैसे गीत का उस फिल्म में कोई स्थान न होते हुए भी ये गाना खल्लास जैसे गाने के सामने टिका रहा।
इतिहास गवाह है उस फिल्म के बाद रामू और अल्ताफ़ भाई दोनों को वैसी सफलता दोबारा हासिल नहीं हुयी। नये मिलेनियम ने जब मासूमियत को लीलना शुरू किया तो उसने सबसे पहले अल्ताफ़ भाई को अपना शिकार बनाया, जिनके नये गाने अब यदा कदा यूट्यूब पर दबे पाँव आ कर सुबह पहली गाड़ी से घर को लौट जाया करते हैं।
– आलोक के फेसबुक पेज Garbage Bin से साभार
            









